डॉ आंबेडकर के आगे नतमस्तक क्यों संघ और भाजपा ? - न्यूज़ अटैक इंडिया
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डॉ आंबेडकर के आगे नतमस्तक क्यों संघ और भाजपा ?

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भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 26 नवंबर को बड़े पैमाने पर संविधान दिवस मनाने का ऐलान किया था.अलग-अलग मंत्रालयों ने लेख-भाषण प्रतियोगिता के साथ समानता-दौड़ आदि का भी आयोजन किया.इसे एक बड़े अभियान के हिस्से के रूप में देखा जा रहा है, जिसका दूसरा हिस्सा है अचानक राष्ट्रीय स्वयंसेवक और भारतीय जनता पार्टी के भीतर बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के प्रति उमड़ी श्रद्धा और प्रेम भाव.

दूसरे, यह पिछले एक साल से अब तक जानी हुई तिथियों को नई-नई राष्ट्रीय तिथियों से बदलने की भी एक कवायद है.जिन दिवसों को हिलाया नहीं जा सकता उनसे जुड़े संदेश को पूरी तरह परिवर्तित कर देने की कोशिश तो साफ़ दिख रही है.

गांधी जयंती को स्वच्छता दिवस में तब्दील कर गाँधी की राजनीति और जीवन के मूल संप्रदायवाद विरोधी विचार को सार्वजनिक स्मृति से मिटा देने का षड्यंत्र पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है, भले ही गाँधी को सरकार का स्वच्छता अभियान का ‘ब्रांड एंबेसडर’ क्यों न बना दिया गया हो.
जो चश्मा गांधी के चेहरे से छिटककर बिड़ला भवन की ज़मीन पर तब गिर गया था, जब नाथूराम गोडसे ने मुसलमानों का पक्षधर होने के अपराध की सज़ा देने के लिए उन्हें गोली मारी थी, उसे उठाकर संघ की सरकार ने सरकारी विज्ञापन में सजा दिया है.

उसी तरह शिक्षक दिवस को शिक्षकों से छीनकर प्रधानमंत्री का उपदेश दिवस बना दिया गया है जिसमें शिक्षकों की उपस्थिति उनका उपदेश सुनाने के लिए इंतज़ामकार भर की रह गई है.14 नवंबर के कार्यक्रम से नेहरू की तस्वीर ग़ायब कर दी गई है और इंदिरा को तो याद करने का सवाल ही नहीं उठता.
राष्ट्र दरअसल कल्पना का ख़ास ढंग का संगठन ही है. इसलिए प्रतीकों का काफ़ी महत्व होता है. जिन प्रतीकों के माध्यम से हम अपनी राष्ट्र की कल्पना को मूर्त करते हैं, उनकी जगह नए प्रतीक प्रस्तुत करके एक नई कल्पना को यथार्थ करने का प्रयास होता है.
तो हम उस राजनीतिक दल के संविधान प्रेम को कैसे समझें जिसकी पितृ-संस्था, यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उस पर मात्र इसलिए अपना विश्वास जताया था जिससे उस पर गाँधी की हत्या के बाद लगा प्रतिबंध हटाया जा सके.

आख़िर यही शर्त सरदार पटेल ने उसके सामने रखी थी. वरना उसका ख़्याल था कि मनुस्मृति से बेहतर संविधान क्या हो सकता है!याद रहे कि इस संगठन ने तिरंगा ध्वज को भी मानने से इनकार किया था यह कहकर कि तीन रंग अशुभ और अस्वास्थ्यकर होते हैं.इस तिरंगे के चक्र पर इस संघ और दल के एक वरिष्ठ नेता, अब मूक मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी ने यह कहकर ऐतराज़ जताया था कि यह बौद्ध धर्म का प्रतीक है. फिर ये सबके सब संविधान और तिरंगे के प्रेमी कैसे हो गए?\

साभार -अपूर्वानंद लेखक और विश्लेषक, बीबीसी हिंदी

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