2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों पर आधारित सभी राजनीतिक कयास इस बार गलत साबित होने वाले हैं
यूपी के सियासी दंगल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अहमियत राजनीतिक दलों से छिपी नहीं है. लेकिन इस इलाके में जमीनी स्तर पर जो संकेत मिल रहे हैं, वे बीजेपी की चिंता बढ़ा सकते हैं.अगर यहां से मिलने वाले सियासी संकेतों को ठीक ढंग से पढ़ा जाए तो बीजेपी यहां अस्तित्व के लिए संघर्ष करती दिख रही है.हैरानी नहीं होगी अगर बीजेपी इस इलाके में चौधरी अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के साथ तीसरे और चौथे स्थान के लिए सियासी संघर्ष करती दिखे.
पहले चरण में इस इलाके की 71 विधानसभा सीटों पर वोट डाले जाने हैं. और करीब-करीब हर एक सीट पर इस बार मुकाबला समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन और बहुजन समाज पार्टी के बीच होने की संभावना है.
भाजपा के खिलाफ भाजपाई
इलाके में इस तरह का सियासी रुझान तीन कारणों से हुआ है. पहला तो ये कि जाट समेत ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर बीजेपी के कट्टर वोटर हुआ करते थे. लेकिन अब यही वर्ग बीजेपी के खिलाफ दिख रहा है.
इन वोटरों का बीजेपी से मोहभंग हो चुका है. और ज्यादातर वोटर या तो आरएलडी की तरफ हैं या फिर सीट दर सीट उम्मीदवारों की व्यक्तिगत हैसियत के आधार पर बंटे हुए दिख रहे हैं. और तो और ये स्थिति मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, आगरा और अलीगढ़ के सभी छह डिविजन की है.
दूसरी बात ये है कि इस बार ‘रिवर्स पोलॉराइजेशन’ जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि सांप्रादायिक तनाव जैसी यहां कोई बात देखने को नहीं मिलती. अमूमन पूरे इलाके में शांति बनी हुई है. और सही मायने में ये वैसी ही स्थिति है जैसी 2014 के शुरुआती दिनों में थी. जब मुजफ्फरनगर दंगों जैसी घटना के चलते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हुआ था.
इस बार मुस्लिम मतदाता एकजुट भी हैं और बंटे हुए भी दिख रहे हैं. एकजुट इस मुद्दे पर कि उन्हें बीजेपी को हर हाल में चुनाव में हराना है. और बंटे हुए इस बात को लेकर कि वो समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन और बहुजन समाज पार्टी के बीच में किसका चुनाव करें.
खास कर जब बात हर एक विधानसभा सीट पर बीजेपी उम्मीदवार के मुकाबले सपा-कांग्रेस गठबंधन और बीएसपी उम्मीदवारों की आती है.
तीसरी वजह ये है कि नोटबंदी के फैसले के अब नकारात्मक असर सामने आने लगे हैं. ऐसे में हैरानी नहीं होगी कि गैर जाट किसान वर्ग के साथ-साथ गुर्जर समुदाय भी सपा-कांग्रेस गठबंधन और बीएसपी की तरफ सियासी विकल्प के तौर पर देखने लगें.
सपा-कांग्रेस गठबंधन भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है
इसके अलावा बीजेपी के लिए चिंता की बात है कि समाजवादी और कांग्रेस गठबंधन को लेकर सूबे के युवा मतदाताओं के बीच ‘फील गुड फैक्टर’ की भी मौजूदगी है. लिहाजा जात-पात से ऊपर उठ कर भी सूबे के युवा इस बार के चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन के लिए मतदान कर सकते हैं.गौर करने की बात है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में इसी वर्ग के मतदाताओं ने मोदी लहर को पूरे यूपी में कामयाब बनाया था.
ये भी गौर करना जरूरी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले 25 वर्षों में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस कभी सियासी तौर पर बहुत मजबूत नहीं रही. लेकिन दोनों पार्टियों के गठबंधन के बाद से ही इन सियासी दलों का भविष्य नाटकीय ढंग से बदला है.
अब मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच दोनों ही पार्टियां एक नए सियासी विकल्प के तौर पर उभरी हैं. यही वजह है कि लखनऊ और आगरा में रोड शो के दौरान राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों ही आत्मविश्वास से लबरेज दिख रहे थे. और हाथ हिलाकर दोनों नेता लोगों के भारी समर्थन का अभिवादन भी कर रहे थे.
यहां तक कि मायावती जिन्होंने मेरठ और मुजफ्फरनगर समेत चुनिंदा जगहों पर बड़ी बड़ी सियासी रैलियां की हैं. उन्हें भी इस बात का एहसास है कि बीजेपी के पारंपरिक वोट बैंक जिसमें जाट, ब्राह्मण, बनिया समेत दूसरी उंची जाति के वोटर शामिल हैं – उसमें सेंध लग चुका है.
जाट समुदाय आरएलडी को एक और मौका देने के मूड में है, तो ऊंची जाति के हिंदू मतदाता सपा-कांग्रेस गठबंधन की तरफ सियासी विकल्प के तौर पर देख रहे हैं.
यही वजह है कि बीएसपी सुप्रीमो मायावती सपा-कांग्रेस गठबंधन के प्रति ऊंची जातियों की सियासी लामबंदी को रोकने की भरपूर कोशिश में जुटी हुई है. उन्होंने दोबारा से इस बात को जाहिर किया है कि उनकी पार्टी ऊंची जाति के गरीब लोगों के लिए आरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है. इसके साथ ही मायावती ने प्रत्येक किसान के एक लाख रुपए के ऋण माफ करने का वादा भी किया है.
भाजपा के वोटर जाटों का बदलता रुझान
भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगने की सियासी घटनाक्रम के बीच ही जाटलैंड में एक और युवा हैं जो यूपी की सियासी दंगल को और दिलचस्प बना रहे हैं. यह चौधरी चरण सिंह के पोते और अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी हैं. जयंत बीजेपी विरोधी विचारधारा के लिए जाने जाते हैं. लेकिन बड़ी बात ये है कि इस युवा जाट नेता के साथ लोगों का जो जुड़ाव देखा जा रहा है वो काफी सराहनीय है.
दरअसल जयंत की कामयाबी का सूत्र बेहद सरल है. ‘लोग शांति से रहना चाहते हैं. बार-बार सांप्रदायिक घावों को कुरेदने का कोई मतलब नहीं है.
उन्होंने कहा ‘लोग योगी आदित्यनाथ, संगीत सोम और संजीव बालियान जैसे नेताओं के बड़े बड़े बयानों से तंग आ चुके हैं. लोग अब उनकी फूट डालो शासन करो की नीति को बेहतर तरीके से समझने लगे हैं. क्या आपको दिख नहीं रहा है कि वोटर ने पार्टी को सबक सीखाने का मन बना लिया है?’
कुछ भी हो एक बात तय दिखती है. 2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों पर आधारित सभी राजनीतिक कयास इस बार गलत साबित होने वाले हैं. और हैरानी नहीं होगी कि हर बार की तरह इस बार भी चुनावी विश्लेषकों के दावे गलत साबित हों.
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साभार -अम्बिकानंद सहाय फर्स्ट पोस्ट