पौने दो करोड़ ‘मिस्ड’ काल वाले सदस्यों और सवा लाख से ज्यादा बूथ कमेटियों वाली भारतीय जनता पार्टी यह मानकर चल रही है कि उत्तर प्रदेश में अगली सरकार उसी की आ रही है. रही-सही कसर केंद्र सरकार के कामों से पूरा हो जाएगा. ऐसा ही दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को भी लग रहा है. भाजपा नेतृत्व यह मानकर चल रहा है कि मिस्ड काल, बूथ कमेटियां, केंद्र का काम और दल-बदलुओं के सहयोग से उसे इतना वोट मिल जाएगा कि फिर उसे किसी की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, कार्यकर्ताओं की भी नहीं. उत्तर प्रदेश में अब उसे हरा पाना मुश्किल है, वह जिसे खड़ा कर देगी वह जीत कर आ जाएगा.भाजपा को ऐसा लगने लगा है कि अब उसे अपने पुराने और विचारधारा से जुड़े कार्यकर्ताओं की भी कतई जरूरत नहीं रह गई है, क्योंकि अब हवा उसके पक्ष में है. इसी हवा में शीर्ष नेतृत्व इस कदर मदमस्त है कि अपने पुराने और मजबूत कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर दलबदलुओं और बड़े नेताओं के परिजनों पर खुलेआम मेहरबानी कर रहा है. वंशवाद और दलबदल का विरोध करने वाली भाजपा में वंशबेल तथा दलबदल अमर बेल की तरह पनपता चला जा रहा है. पुराने नेताओं के विरासत पर उनके परिजनों की वरासत लिखी जा रही है.
अनिल सिंह
देश की एकमात्र स्वयंभू राष्ट्रवादी दल भारतीय जनता पार्टी के लिए उसकी खुद की वैचारिक प्रतिबद्धता, वायदे, इरादे, नैतिकता कितना मायने रखते हैं और वह इन सब बातों पर कितना खरा उतरती है, इसका एहसास भला रामलला से ज्यादा और किसे होगा?
रामलला हम आएंगे….और सरल-सहज रामलला तो आज तक फटे-पुराने टेंट में बैठकर इस पार्टी के नुमाइंदों के आने का इंतजार कर रहे हैं, और इंतजार है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा, तो फिर इस पार्टी के लिए वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कार्यकर्ता किस खेत की मूली हैं, जिन्हें सम्मान देकर पार्टी नेतृत्व अपने असली चरित्र से समझौता कर लेगा! दरअसल, अटल-आडवाणी युग की समाप्ति के साथ ही इस पार्टी का जो वैचारिक पतन-क्षरण प्रारंभ हुआ, उसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में केशव प्रसाद मौर्य एवं सुनील बंसल की जोड़ी ने इतनी रफ्तार दे दी है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा अब कहीं से भी सपा-बसपा या कांग्रेस से अलग नजर नहीं आती है। पार्टी विद डिफरेंस की उसकी छवि धूल-धूसरित हो चुकी है.
भाजपा जिस परिवारवाद, दल-बदल और टिकट वितरण में धन उगाही की निंदा और खिलाफत किया करती थी, आज यह भगवा दल उसी राह पर बहुत आगे बढ़ चुका है. परिवारवाद का मामला हो या टिकट वितरण में उगाही का या फिर दल-बदलुओं को पुरस्कृत करने का, दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भारतीय जनता पार्टी अब वैचारिक और व्यवहारिक तौर पर इतनी अनैतिक और पतित हो चुकी है कि उसे इन बातों की अब कोई परवाह नहीं है.इन बातों से अब उसे कोई फर्क भी नहीं पड़ता, उसे तो उत्तर प्रदेश में बस जीत चाहिए किसी भी कीमत पर, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी रास्ते से और किसी भी सौदेबाजी से.
दरअसल, किसी दौर में अपनी अलग पहचान रखने वाली भारतीय जनता पार्टी ऐसे राजनीतिक दल के रूप में स्थापित हो चुकी है, जिसकी कथनी और करनी में फर्क साफ नजर आने लगा है. पार्टी कहती कुछ है और करती कुछ और है। अभी कुछ दिन पहले ही भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी के नेताओं को कहा था कि वे अपने परिजनों के लिए टिकट की मांग ना करें. उन्होंने कई बार मुलायम सिंह यादव के वंशवाद पर जमकर प्रहार भी किया था, लेकिन जब भाजपा ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पार्टी में टिकट की घोषणाएं शुरू की तो फिर वंशवाद-परिवारवाद की ऐसी धारा बह निकली, जो मुलायम सिंह यादव के समाजवादी कुनबे तक को पीछे छोड़ने को आतुर दिखने लगी. राजनीतिक विरासत की वरासत लिखने की शुरुआत हुई कल्याण सिंह के प्रपौत्र संदीप सिंह के नाम से, जिन्हें भाजपा ने कल्याण सिंह की परंपरागत अतरौली विधानसभा सीट से अपना उम्मीदवार घोषित किया है. संदीप के पिता राजबीर सिंह एटा से भाजपा के सांसद हैं.
अब कल्याण सिंह की तीसरी पीढ़ी भगवा दल से जनप्रतिनिधि बनने को तैयार है, लेकिन भाजपा वंशवाद के खिलाफ झंडा-बैनर उठाकर चलती है.कल्याण सिंह की बहू को तो इस बार भाजपा का टिकट नहीं मिला है, लेकिन उनके भतीजे देवेंद्र सिंह लोधी को कासगंज, चचेरे भाई के बेटे देवेंद्र प्रताप सिंह को अमापुर तथा उनके भांजे बिपिन वर्मा को भाजपा ने एटा सदर से टिकट दिया है. परिवारवाद और वंशवाद की यह अमर बेल यहीं खत्म नहीं होती. कल्याण सिंह के परिवार से तो इस कड़ी की शुरुआत होती है, जो नीलिमा कटियार जैसे ना जाने कितने पुत्र-पुत्रियों और रिश्तेदारों से होते हुए लगातार आगे बढ़ती है। कल्यानपुर से पांच बार विधायक रहीं प्रेमलता कटियार की पुत्री नीलिमा कटियार को इसी सीट से भाजपा ने अपना प्रत्याशी बनाया है.
आजमगढ़ सदर सीट से भाजपा ने केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र के पुत्र अमित मिश्र के साले अखिलेश मिश्र को प्रत्याशी घोषित किया है.अयाहशाह सीट से भाजपा ने पूर्व मंत्री राधेश्याम गुप्ता के बेटे विकास गुप्ता को प्रत्याशी बनाया है. इलाहाबाद उत्तरी से सपा के महिला विंग की राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुकीं रंजना बाजपेयी के बेटे हर्ष बाजपेयी को टिकट दिया गया है. लखनऊ पूर्व से भाजपा के दिग्गज नेता लालजी टंडन के पुत्र आशुतोष टंडन उर्फ गोपालजी पहले ही उपचुनाव जीतकर इस वंशबेल को लहलहा रहे हैं. उन पर पार्टी ने एक बार फिर भरोसा जताया है. राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह को नोएडा से टिकट देकर अनुग्रहित किया गया है. पूर्व मंत्री हरिश्चंद्र श्रीवास्तव एवं विधायक ज्योत्सना श्रीवास्तव के पुत्र सौरभ श्रीवास्तव को वाराणसी कैंट से टिकट देकर परिवारवाद को और मजबूत किया गया है.
भाजपा नेताओं या दूसरे दलों से आए नेताओं के परिजनों को टिकट देने की लिस्ट यही खत्म नहीं होती, यह हनुमानजी की पूंछ से भी लंबी हो गई है. बसपा से भाजपा में आए दिग्गज स्वामी प्रसाद मौर्य खुद तो पडरौना से टिकट ले ही आए, साथ ही अपने पुत्र उत्कर्ष मौर्य को भी ऊंचाहार से टिकट का जुगाड़ करवा दिया.कैराना से सांसद हुकुम सिंह अपनी पुत्री मृगांका सिंह को टिकट दिलाने में सफल रहे. सांसद सर्वेश सिंह अपने पुत्र सुशांत सिंह को बढ़ापुर से उम्मीदवार बनवाने में सफल रहे. भाजपा ने एमएलसी डीपी यादव के बेटे जितेंद्र यादव को सहसवान से अपना उम्मीदवार बनाया तो फर्रुखाबाद में पूर्व मंत्री ब्रह्मदत्त द्विवेदी के पुत्र मेजर सुनील दत्त द्विवेदी तीसरी बार भाजपा का टिकट लेने में सफल रहे.मोहनलालगंज सांसद कौशल किशोर अपनी पत्नी जयदेवी को मलिहाबाद से टिकट दिलाकर परिवारवाद को बढ़ाने में अपना पूरा योगदान दिया. सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के पुत्र प्रतीक भूषण को भाजपा ने गोंडा से टिकट देकर उपकृत किया.
कादीपुर सुरक्षित सीट से पूर्व विधायक काशीनाथ के पुत्र राजेश गौतम कमल चुनाव चिन्ह लेने में सफल रहे. पूर्व विधायक त्रिवेणी राम की बहु अनीता कमल को आलापुर सुरक्षित, ऐश्वर्या मौसम चौधरी की पत्नी शुचि चौधरी को बिजनौर तथा पार्टी के पूर्व विधायक नौनिहाल सिंह के बेटे राकेश कुमार चुन्नू को मुरादाबाद की कांठ सीट से टिकट दिया गया है. बसपा से भाजपा में शामिल हुए पूर्व राज्य सभा सांसद जुगल किशोर के पुत्र सौरभ सिंह सोनू को कस्ता सुरक्षित सीट से उम्मीदवार बनाया गया है.कांग्रेसी सांसद संजय सिंह की पहली पत्नी गरिमा सिंह को अमेठी से टिकट दिया गया है. इलाहाबाद पश्चिम से पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नाती सिद्धार्थनाथ सिंह को उतारा गया है. पूर्व विधायक कुख्यात उदयभान करवरिया की पत्नी नीलम करवरिया को मेजा से टिकट दिया गया है.मिर्जापुर की चुनार सीट से पूर्व मंत्री एवं पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ओम प्रकाश सिंह के बेटे अनुराग सिंह को तथा चरखारी से गंगा चरण राजपूत के पुत्र ब्रज भूषण राजपूत को उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने वंशवाद का जबदस्त ‘विरोध’ किया है.
दरअसल, यह पहली बार है, जब भाजपा नेतृत्व ने नैतिकता, वैचारिक प्रतिबद्धता और इसकी अनदेखी को लेकर उठने वाले किसी भी सवाल को दरकिनार करते हुए इतनी बड़ी संख्या में नेताओं के परिजनों, रिश्तेदारों और पुत्र-पुत्रियों को टिकट दिया है। विरासत की वरासत लिख रही भाजपा में एकक्षत्र राज कर रहे नरेंद्र मोदी को आंतरिक विरोध का सामना करने से बचाने के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह यूपी में किसी भी कीमत पर जीत हासिल करना चाहते हैं। यूपी में सत्ता पाने के लिए उन्होंने अपने सारे घोड़े खोल दिए हैं। तरकश के सारे तीर आजमाए जा रहे हैं। परिवारवाद, वंशवाद, दल-बदल, खरीद-फरोख्त जैसे जीत के तमाम साधन-संसाधन अपनाए जा रहे हैं। भाजपा नेतृत्व जीत हासिल करने के लिए इतना व्याकुल है कि उसने अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की कीमत पर दूसरे दलों से आने वाले दलबदलुओं को भी गले लगाने से परहेज नहीं किया है.
भाजपा को दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचार कितने प्रासंगिक लगते हैं,इसको समझना अब कोई राकेट साइंस नहीं रह गया है. वरिष्ठ पत्रकार अशोक यादव कहते हैं, ”भारतीय जनता पार्टी अपनी जिन रीतियों और नीतियों के चलते अलग पहचान रखती थी, वह अब खत्म हो चुकी है. वैचारिक प्रतिबद्धता तो अब किसी भी दल में देखने को नहीं मिलती, लेकिन भारतीय जनता पार्टी कुछ साल पहले तक वैचारिक रुप से प्रतिबद्ध पार्टी नजर आती थी, लेकिन वर्ष 2012 से शुरू हुआ पतन अब 2017 में रफ्तार पकड़ चुका है. भाजपा के लिए भी अन्य दलों की तरह विचार नहीं सत्ता महत्वपूर्ण हो गई है. नेतृत्व की सत्ता पाने की चाहत की कीमत जाहिर है कि कार्यकर्ताओं को ही चुकाना होगा, जिसे वह चुका रहे हैं.” दरअसल, डा. अशोक यादव की बातों से इनकार भी नहीं किया जा सकता है. भाजपा उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करने के लिए वैचारिक तौर पर किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार है. भाजपा के लिए अब उसके मूल कार्यकर्ताओं की वैचारिक प्रतिबद्धता के कोई मायने नहीं रह गए हैं. भाजपा नेतृत्व के लिए सभी प्रतिबद्धताओं से ऊपर जीत है.
दरअसल, नरेंद्र मोदी और अमित शाह को पता है कि जब तक जीत मिल रही है, तब तक उनकी तानाशाही वाली हुकूमत चल रही है, यूपी हार गए तो हुकूमत चलाना आसान नहीं रह जाएगा, इसका प्रभाव 2019 की संभावनाओं पर भी पड़ेगा। बिहार और दिल्ली में हार का झटका तो राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू कश्मीर की जीत ने झेल लिया था, लेकिन यूपी में हार का भूकंप संभालना मुश्किल हो जाएगा.उन्हें पार्टी के भीतर से ही चुनौतियां मिलनी शुरू हो जाएंगी, जो अभी तक दबी-कुचली हुई हैं। इस स्थिति को रोकने के लिए अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा वह सारे हथकंडे अपना रही है,जो दूसरे दल अपनाया करते थे। खुद को पार्टी विद डिफरेंस बताने वाली भाजपा ने इस विधानसभा चुनाव में अपनी इस पहचान को लगभग खो दिया है.
भाजपा में अपनों को उपेक्षित करने का सिलसिला यही खत्म नहीं होता है. स्टार प्रचारकों की सूची में भी पार्टी ने अपने दिग्गज नेताओं को जगह नहीं दिया है. लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वरुण गांधी, विनय कटियार, ओम प्रकाश सिंह, डा. लक्ष्मीकांत बाजपेयी, डा. रमापति राम त्रिपाठी, लालजी टंडन जैसे दिग्गज को लिस्ट में जगह नहीं दी गई है. दूसरी तरफ, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ दूसरे दलों से आए नेताओं को स्टार प्रचारक बनाया गया है. इनमें बसपा से आए स्वामी प्रसाद मौर्य, लोकसभा के समय शामिल हुए कौशल किशोर, कई दलों के भ्रमण के बाद भाजपा में आए एसपी सिंह बघेल, बसपा से ही आए लोकेश प्रजापति, राष्ट्रीय लोकदल से आए अवतार सिंह भड़ाना तथा दहेज हत्या का आरोप झेल चुके नरेंद्र कश्यप भी स्टार प्रचारक बनाए गए हैं.
दरअसल, अपने ही कार्यकर्ताओं को चिढ़ाने वाले ये काम भाजपा को कितना फायदा पहुंचाता है, यह तो मतगणना के बाद पता चलेगा, लेकिन अभी जो तस्वीर बन रही है, वह भाजपा के सेहत के लिए बहुत अच्छी नहीं कहीं जा सकती.माहौल देखकर तो भाजपा नेतृत्व ने मान लिया है कि उसकी ही सरकार बनेगी, लेकिन धरातल पर कार्यकर्ताओं की नाराजगी उसके वनवास को पांच साल और बढ़ा सकती है, ऐसा अभी से प्रतीत होने लगा है.
दल-बदलुओं के ‘अच्छे दिन‘
भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में दल-बदलुओं के दिन फेर दिए हैं. कई ऐसे दल-बदल करने वाले नेताओं को भी टिकट दिया गया है, जिन्हें भाजपा में शामिल हुए 48 घंटे भी नहीं बीते थे. शीर्ष नेतृत्व के इस फैसले टिकट की दावेदारी करने वाले पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को गहरा धक्का लगा है, जिसका प्रभाव चुनाव परिणामों पर भी पड़ेगा. भाजपा ने कांग्रेस से आई रीता बहुगुणा जोशी को उनकी कैंट सीट से ही उम्मीदवार बना दिया है. बसपा से आए पूर्व सांसद ब्रजेश पाठक को लखनऊ मध्य सीट से उतारा गया है. बसपा से आए स्वामी प्रसाद मौर्य को पडरौना तथा स्वाभिमान पार्टी के आरके चौधरी को मोहनलालगंज सीट समझौते में दे दिया गया है.
बसपा से आए दारा सिंह चौहान भी मधुबन सीट से उम्मीदवार बनाया गया है. बसपा विधायक रजनी तिवारी को शाहाबाद से, सपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को बांगरमऊ से, कांग्रेस विधायक माधुरी वर्मा को नानपारा से, कांग्रेस विधायक संजय जायसवाल को रुधौली से, सपा विधायक श्याम प्रकाश को गोपामऊ से, कांग्रेस विधायक प्रदीप चौधरी को गंगोह से, बसपा विधायक राजेश त्रिपाठी को चिल्लूपार से,रालोद विधायक दलबीर सिंह को बरोली से, बसपा विधायक रोमी साहनी को पलिया से, बसपा विधायक महावीर सिंह राणा को बेहट से, बसपा विधायक धर्म सिंह सैनी को नकुड़ सीट से, बसपा विधायक रोशन लाल वर्मा को तिलहर से, बसपा विधायक ओम कुमार को नहटौर से, रालोद विधायक पूरन प्रकाश को बलदेव से तथा बसपा विधायक बाला प्रसाद अवस्थी को धौरहरा सीट से भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया गया है. इस सभी उम्मीदवारों ने अपने दलों से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया है. मौजूदा विधायकों के अलावा भाजपा ने दूसरे दल से आए तमाम पूर्व विधायक एवं नेताओं को टिकट दिया है.
बसपा से आए ममतेश शाक्य पटियाली से, रालोद से आए सत्यवीर किठौर से, बसपा से आए डा. मुकेश वर्मा को शिकोहाबाद से, बसपा से आए अनिल शर्मा को शिकारपुर से, बसपा से आए चौधरी लक्ष्मण नारायण को छाता सीट से,सपा की पूर्व सांसद ओमवती को नगीना सुरक्षित से, सपा से आए मयंकेश्वर सिंह को तिलोई से, बीएसपी एमएलसी रहे हरगोविंद सिंह को बाराबंकी से, कांग्रेस से आए नंद कुमार नंदी को इलाहाबाद पश्चिम से, बसपा से आए पूर्व मंत्री शारदा प्रसाद को चकिया से, कांग्रेस से आए अजय सिंह को हरैया से, बसपा से आए दीनानाथ भास्कर को औराई से, सपा से आए अनिल राजभर को शिवपुर से तथा बसपा से आए अनिल मौर्य को घोरावल से भाजपा ने अपना प्रत्याशी घोषित किया है. इनके अलावा भी कई सीटों पर दूसरे दलों से आए लोगों को प्रमुखता दी गई है.
पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता राष्ट्रीय नेतृत्व के इस फैसले से खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. दलबदलुओं की लंबी लिस्ट ने पार्टी के उन मूल कार्यकर्ताओं को हाशिए पर डाल दिया है,जो टिकट पाने वाले दल-बदलू नेताओं के खिलाफ आंदोलन-प्रदर्शन किया करते थे। जाहिर है इस परिस्थिति में कार्यकर्ता विरोध भले ही ना करें, लेकिन वह शांत जरूर बैठ जाएग, जिसका नुकसान कहीं ना कहीं भाजपा को ही उठाना पड़ेगा.
छात्र राजनेता हाशिए पर
भाजपा में छात्र नर्सरी से आने वाले नेताओं को हाशिए पर डाल दिया गया है. संगठन में मजबूत पकड़ रखने वाले महामंत्री स्वतंत्रदेव सिंह को भी टिकट वितरण में किनारे लगा दिया गया है. दूसरे महामंत्री विजय बहादुर पाठक भी टिकट देने लायक नहीं समझे गए. पाठक भी छात्र राजनीति की ऊपज रहे हैं. गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष समीर सिंह को भी पार्टी ने टिकट नहीं दिया है.लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के महामंत्री रहे प्रदेश प्रवक्ता आईपी सिंह को भी पार्टी ने टिकट लायक नहीं समझा, जबकि वह आजमगढ़ की गोपालपुर सीट से प्रबल दावेदार थे. पार्टी ने वहां तीन बार हारे हुए व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बना दिया है. लखनऊ विश्वविद्यालय के ही पूर्व अध्यक्ष एवं पूर्व मंत्री संतोष सिंह भी पिछले कई बार से टिकट मांग रहे हैं, लेकिन दिग्गजों के पुत्र-रिश्तेदार-दलबदलू उन पर भारी पड़ जा रहे हैं. बीएचयू के अध्यक्ष रहे जेपीएस राठौड़ को भी पार्टी ने विधायक बनने लायक नहीं समझा है. भाजपा ने दो छात्र नेताओं शैलेश कुमार सिंह उर्फ शैलू तथा धीरेंद्र बहादुर सिंह को टिकट दिया है, लेकिन इन्हें टिकट इनकी क्षमता को देखकर नहीं बल्कि पंकज सिंह के नजदीकी होने के चलते दिया गया है.
टिकट वितरण में बंसल की धमक
उत्तर प्रदेश में टिकट वितरण में सबसे ज्यादा प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल की चली है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान राकेश जैन से प्रभार लेने वाले बंसल की छवि अब तक के सबसे ताकतवर संगठन महामंत्री की बन चुकी है. सहज-सरल महामंत्रियों के विपरीत सुनील बंसल लक्जरी जीवन जीने वाले तथा अपने कार्यकर्ताओं से दूरी बनाकर रखने वाले नेता साबित हुए हैं. भाजपा कार्यालय में सुपर स्टार जैसी उनकी छवि के बीच प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्या भी दब चुके हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के खासमखास सुनील बंसल पर कई तरह के आरोपों के छींटे पड़ने के बावजूद उनके स्टार छवि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. उत्तर प्रदेश में टिकट वितरण में राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, केशव मौर्या भले ही अपने कुछ लोगों को टिकट दिलाने में सफल रहे,लेकिन ज्यादातर टिकट उन्हें ही मिला है, जिस पर सुनील बंसल ने हाथ रखा था. टिकट वितरण में बंसल की ताकत देखने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं में यह भी चर्चा होने लगा है कि अगर भाजपा को बहुमत मिलता है तो सुनील बंसल मुख्यमंत्री के दावेदार हो सकते हैं. खैर, इस चर्चा में कितनी सच्चाई है यह तो चुनाव परिणामों के बाद की बात है, पर यह तय है कि हार का ठीकरा केशव मौर्या के सिर पर फूटेगा, जो प्रत्याशी चयन के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं.