शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही लड़कियों को हाशिए पर धकेलता स्कूलों में यौन शोषण - न्यूज़ अटैक इंडिया
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शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही लड़कियों को हाशिए पर धकेलता स्कूलों में यौन शोषण

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ज्योति कक्षा नौवीं की छात्रा है और रोज़ कुछ कर दिखाने के सपने लेकर स्कूल जाती है। उसका परिवार बीपीएल यानी गरीबी रेखा के नीचे की कैटैगरी में आता है। मां और बाप जैसे-तैसे मजदूरी से घर चलाते हैं तो वहीं ज्योति और उसकी दो बहनें सिर्फ इसलिए स्कूल जा पाती हैं क्योंकि वो सरकारी है और उनकी फीस माफ है। हालांकि उन्हें पढ़ने जाने के लिए भी अक्सर दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जो आर्थिक से इतर मानसिक और भावात्मक प्रताड़ना से जुड़ा है।

ये छोटा सा किस्सा कोई काल्पनिक नहीं है बल्कि हरियाणा के उसी कैथल का है जहां हाल ही में एक सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल को चार छात्राओं का यौन उत्पीड़न करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। कैथल से पहले जींद और उन्नाव की लड़कियां भी अपने प्रिंसिपल और हेडमास्टर के खिलाफ शिकायत लेकर सामने आई थीं। ये वो किशोर लड़कियां हैं जो अभी ठीक से परिपक्व भी नहीं हैं जिन्हें शोषण के कानूनों और तरीकों की ज्यादा जानकारी तक नहीं है। इनके परिवार बहुत ही गरीब हैं और इसके खिलाफ लड़ने के लिए ठीक से तैयार तक नहीं हैं। इस तरह के यौन शोषण के दूरगामी सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक संघर्ष हैं।

डर, तनाव और पढ़ाई छूटने का भय

इन तमाम शिकायतों के बाद प्रभावित सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियों के अंदर शोषण का डर, तनाव और पढ़ाई छूटने का भय भी है। क्योंकि इनके मां-बाप बहुत ही सामान्य हैं और उन्हें समाज में अपनी कथित इज्जत का ज्यादा मोह है। इसलिए फिलहाल वो लड़कियों को स्कूल भेजने में भी हिचकिचा रहे हैं। कई लोगों को लड़कियों के भविष्य और फिर शादी की चिंता है। इसलिए वो इन शिकायती और कानूनी पचड़ों में नहीं पड़ना चाहते। क्योंकि ये इन बढ़ती लड़कियों की ऐसी उम्र है कि वो पितृसत्ता से इतर शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और हार्मोनल परिवर्तनों का सामना भी कर रही होती हैं इनपर असर भी ज्यादा होता है।

स्कूली लैंगिक हिंसा के ज्यादातर मामलों में देखने को मिला है कि यहां आरोपी या अपराधी ताकतवर और रसूख वाले होते हैं जिन पर हाथ डालने से अक्सर लोग घबराते ही हैं। वो भी खासकर गरीब लोग जिनकी रोज़ी-रोटी ही बड़ी मुश्किल से चल रही होती है। और शायद इसी बात का ये लोग बखूबी फायदा उठाते हैं। क्योंकि कई बार खाप पंचायतों के फैसलों में यौन हिंसा का मामला यूं ही रफा-दफा कर दिया जाता है। इसिलए इनकी हिम्मत वैसे ही बड़ी रहती है। ऊपर से समुदाय का प्रेशर भी पीड़ित परिवार पर होता है जो बार-बार उन्हें चुप रहने की सलाह ज्यादा देता दिखाई पड़ता है।

लैंगिक असमानता पहले ही लड़कियों की शिक्षा तक पहुंच को कम करती है। ऐसे में स्कूलों में इस तरह के शोषण की खबरें लड़कियों के लिए किसी बड़ी रुकावट से कम नहीं हैं। क्योंकि परिवार से पहले ही उन्हें पढ़ाई के लिए संघर्ष करना पड़ता है और प्रताड़ना की खबरों के बीच तो बहुत संभव है कि उन्हें पढ़ाई छुड़वा कर घर ही बैठा दिया जाए और शायद यही कारण है कि ज्यादातर लड़कियां चुप रहना ही बेहतर विकल्प समझती हैं। क्योंकि अपराधी पहले से ही उनकी तमाम विवशताओं को जानते हैं और खुद भी पितृसत्ता के रखवाले होते हैं वो इसका फायदा उठाते हैं।

निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों की किशोरियां के साथ ज्यादा भावनात्मक हिंसा

महिला और बाल हिंसा पर नज़र रखने वाली पत्रकार ऋचा शर्मा बताती हैं ऐसी कई रिपोर्ट्स भी आई हैं जो इस बात को सिद्ध करती हैं कि स्कूल जाने वाली लड़कियों के साथ यौन शोषण कितना घातक है। वो एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहती हैं कि उत्तर भारत के एक ग्रामीण ब्लॉक में 10सरकारी और निजी माध्यमिक विद्यालयों में आठवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली 13-19 वर्ष की आयु वर्ग की किशोर लड़कियों के बीच एक अध्ययन से पता चला कि किशोरियों के बीच6.6शारीरिक हिंसा, 5.4फीसद यौन और5.2 फीसद भावनात्मक हिंसा की व्यापकता पाई गई। जिसके जिम्मेदार उनके अपने या जिम्मेेदार पदों पर बैठे लोग थे। इसके अलावा निम्न और मध्यमवर्गीय परिवारों की किशोरियां ज्यादा भावनात्मक हिंसा का अनुभव करती हैं ये भी एक सच्चाई है।

ऋचा आगे बताती हैं कि इस तरह की हिंसा या शोषण लड़कियों की शिक्षा को प्रत्यक्ष और अन्य मानवाधिकारों पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इसमें कोई शंका नहीं कि हिंसा का खतरा माता-पिता को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से हतोत्साहित कर सकता है। इसके अलावा समुदाय की दखलंदाज़ी और परिवार की आर्थिक स्थिति भी एक अहम भूमिका निभाती है। लेकिन अफसोस अक्सर इन छात्राओं के साथ हो रही हिंसा और इनकी स्थिति को दो-चार दिन बाद भुला दिया जाता है, नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

गौरतलब है कि हमारे देश में सभी को शिक्षा का अधिकार है लेकिन लड़कियों को इसके लिए कहीं अधिक संघर्ष करना पड़ता है। कई बार घर के काम के बोझ के साथ स्कूल के बस्ते का बोझ उठाना पड़ता है तो कभी लोगों की गंदी नज़रों से बच-बचा के स्कूल का सफर तय करना पड़ता है। जैसे-तैसे स्कूल पहुंचने के बाद भी शोषण और पितृसत्ता की अलग चुनौती है जो रोज़ाना उनके धैर्य और हिम्मत की परीक्षा लेती है। ऐसे में लड़कियों के लिए सुरक्षित माहौल बनाने की जिम्मेदारी शासन-प्रशासन की है लेकिन इन सब के प्रति सक्रियता भी महज़ चुनावी जुमलों मे ही नज़र आती है।

COURTESY:  सोनिया यादव NEWSCLICK

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